असद ज़ैदी की यह कविता पिछले वर्ष की सबसे अधिक चर्चित रचनाओं में रही है। इस पर कई आलेख लिखे गए हैं। १८५७ के सन्दर्भ में इस कविता के माध्यम से आधुनिक भारतीय समाज की राजनैतिक-सामाजिक स्थिति को देखने का नया नज़रिया मिलता है। इसे मैं अपने प्रिय कवि और कबाड़ शिरोमणि श्री वीरेन डंगवाल के आग्रह पर लगा रहा हूं:
१८५७: सामान की तलाश
१८५७ की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं
ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर ग़लती अपनी ही की हुई लगती है
सुनाई दे जाते हैं ग़दर के नगाड़े और
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटें
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलक़दमी
हो सकता है यह कालान्तर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो
पर यह उन १५० करोड़ रुपयों का शोर नहीं
जो भारत सरकार ने 'आज़ादी की पहली लड़ाई' के
१५० साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिये मंज़ूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के क़लम से जो आज़ादी की हर लड़ाई पर
शर्मिन्दा है और माफ़ी मांगता है पूरी दुनिया में
जो बेहतर ग़ुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिये कुछ भी
क़ुरबान करने को तैयार है
यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचन्दों और हरिश्चन्द्रों ने
और उनके वंशजों ने
जो ख़ुद एक बेहतर ग़ुलामी से ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन सत्तावन के लिये सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, ईश्वरचन्द्रों, सैयद अहमदो,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आई
यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब १५० साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की ख़ुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकल कर
सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ़
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया उन्हें इतना अकेला?
१८५७ में मैला - कुचैलापन
आम इन्सान की नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है
लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, पूरी होने के लिये
किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से
कई दफ़े तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठ कर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उन से भी ज़्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझ कर बताने लगते हैं अब मैं नज़फ़गढ़ की तरफ़ जाता हूं
या ठिठक कर पूछने लगते हैं बख़्तावरपुर का रास्ता
१८५७ के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिये वे लड़ते थे
और हम उन के लिये कैसे मरते थे
कुछ अपनी बताओ
क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उस का कोई उपाय।
5 comments:
बहुत-बहुत अच्छी कविता.
वीरेन भाई सहाब का आग्रह वाजिब है, ये कविता पढ्वायी जानी ही चाहिये. उदभावना, पहल और अब आप, सबको बधाई एव्म शुभ कामनाए.
बहुत अच्छी कविता है।
ये वास्तव में अद्भुत, ज़रूरी और प्रासंगिक और १८५७ की तरह आगे भी प्रासंगिक रहने वाली कविता है. मूल्शंकर और नरेन्द्र और भारतेंदु, और सय्यद से भी ज्यादा दवंद रहित आचार्य हैं आज के. वो इस कविता को बर्दाश्त नहीं कर पाए और असद जैदी के साथ इस कविता पर लिखने का गुनाह करने वाले मंगलेश डबराल पर भी पिल पड़े. बहरहाल, हरयाणा में १८५७ पर मनमोहन ने एक पर्चा लिखा था जिसकी शुरुआत ही इस कविता कि पंक्तियाँ -`लड़ाईआं अधूरी ..' से थीं. पूरे हर्याना में १८५७ पर एक नाटक खेला गया जिसमें इन पंक्तियों के साथ इस कविता कि अन्तिम पक्न्तियाँ भी थीं. दिल्ली एनएसडी में औरतों पर एक नाटक देखा, उसमें भी -`लड़ाईआं अधूरी ..' के सहारे बात कही गयी थी. मैंने भी यह कविता ब्लोग पर दी है और असद जैदी की पुरानी कविता की किताब के दोबारा छपने पर उसमें लिखी गयी असद की भूमिका भी दी है. आप पढ़ सकते हैं -
http://ek-ziddi-dhun.blogspot.com/
1857
ठंडी रोटियों ने क्रांती की जवाला को जला दिया
डरे हुए हमारे दिलो में जवालामुखी बरपा दिया
अपनी आज़ादी को लड़ते रहने का जज्बा सिखा दिया
९० साल लगे आजाद होने में फिर भी आजाद तो करा दिया
आज
१५० साल बाद भी जश्न सिर्फ सरकार मानती है
हमें अपनी रोटी की चिंता है देश तो सिर्फ माटी है
आज़ादी मिली पर हमने महसूस नहीं की
क्योंकि हमें सिर्फ गुलामी ही भाती है ।
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